विद्या भारती विश्व का सबसे बड़ा गैर सरकारी शिक्षा संस्थान
स्वाधीनता के पश्चात् सारा देश चाहता था कि अब देश स्वाधीन हो गया है, अंग्रेज चले गए हैं इसलिए अंग्रेजी शिक्षा को हटाकर पुन: भारतीय शिक्षा प्रतिष्ठित करनी चाहिए। जब भारत स्वतंत्र हुआ तब एक पत्रकार ने विनोबा भावे से पूछा था कि स्वतंत्र भारत में आप कैसी शिक्षा चाहते हैं? विनोबा जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, “अब भारत में भारतीय शिक्षा लागू होनी चाहिए। भारतीय शिक्षा को लागू करने के लिए यदि छ: माह का समय लगे तो छः महीने तक देश के सभी विद्यालय बंद कर देने चाहिए। जब छः महीने बाद विद्यालय खुले तब उनमें भारतीय ज्ञान ही दिया जाए।” किन्तु उस समय के नेतृत्व ने विनोबा जी की बात नहीं मानी और वही अंग्रेजी शिक्षा चलने दी। इतना ही नहीं देश की शिक्षा उन लोगों के हाथों में सौंपी जो अभारतीय मानस के थे। इस प्रकार स्वतंत्र भारत में भी जब अभारतीय शिक्षा ही दी जाती रही, तब विद्या भारती ने शिक्षा क्षेत्र में आना आवश्यक समझा। सन् 1952 में विद्या भारती योजना का पहला सरस्वती शिशु मंदिर, गोरखपुर में प्रारम्भ हुआ। आज तो विद्या भारती के सम्पूर्ण देश मे शिक्षा केन्द्र चल रहे हैं, जिनमें व्यक्ति निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण की शिक्षा दी जा रही है।विद्या भारती ने शिक्षा क्षेत्र का वरण तो कर लिया, किन्तु उसने शिक्षा को ही क्यों चुना? यह जानना भी आवश्यक है। विद्या भारती ने देश के शिक्षा क्षेत्र की चुनौती को स्वीकार किया है और भारत की वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन कर उसका विकल्प विकसित करने का संकल्प लिया है। इस संकल्प की पूर्ति हेतु विद्या भारती ने अपना लक्ष्य निर्धारित किया है। उसने अपने लक्ष्य में जो-जो करना चाहती है, उसे स्पष्ट शब्दों में कहा है।
*विद्या भारती का लक्ष्य*
विद्या भारती इस प्रकार की राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का विकास करना चाहती है, जिसके द्वारा ऐसी युवा पीढ़ी का निर्माण हो सके जो हिन्दुत्वनिष्ठ एवं राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत हो, शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से पूर्ण विकसित हो तथा जो जीवन की वर्तमान चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक कर सके और उसका जीवन ग्रामों, वनों, गिरिकन्दराओं एवं झुग्गी-झोपडियों में निवास करने वाले दीन-दुखी, अभावग्रस्त अपने बान्धवों को सामाजिक कुरीतियों, शोषण एवं अन्याय से मुक्त कराकर राष्ट्र जीवन को समरस, सुसम्पन्न, एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए समर्पित हो।विद्या भारती का यह लक्ष्य अपने आप में इतना स्पष्ट है एवं इतना सुविचारित है कि कुछ और कहना शेष नहीं रहता। लक्ष्य साफ-साफ बताता है कि हमारे देश में विदेशी नहीं राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली हो, जिससे हिन्दुत्वनिष्ठ युवा पीढ़ी निर्मित हो जो राष्ट्र के उत्थान हेतु समर्पित हो। मैं समझता हूं इससे बढ़कर व्यक्ति और राष्ट्र हित का विचार नहीं हो सकता। इसी लक्ष्य की पूर्ति में विद्या भारती प्रयत्नरत है और अपने प्रयत्नों में उसे सफलता भी मिल रही है।
विद्या भारती की मान्यता है कि केवल किताबी ज्ञान जानकारी बढ़ा सकता है किन्तु जीवन निर्माण नहीं कर सकता। इसी प्रकार पर्सनालिटी विकास से आकर्षक व्यक्तित्व बनाया जा सकता है, परन्तु व्यक्तित्व की मूलभूत सम्भावनाओं का विकास नहीं हो सकता। हमारा तैत्तिरीय उपनिषद कहता है कि व्यक्तित्व पंच कोशात्मक है। ये पंच कोश हैं- अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश तथा आनन्दमय कोश। इन पांचों कोशों का विकास करने से अर्थात् शरीर, प्राण, मन, बुद्धि तथा चित्त जब विकसित होते हैं, तभी सर्वांगीण विकास हुआ माना जाता है। केवल इतना ही नहीं तो जब तक विकसित व्यक्ति का समष्टि के साथ समायोजन नहीं होता, अर्थात मेरा जीवन केवल मेरे लिए नहीं है, वह परिवार, समाज, देश एवं विश्व के लिए भी है, जब तक इस बात का भान नहीं होता तब तक व्यक्ति में और मेरा परिवार तक ही सीमित रहता है। इसी प्रकार व्यक्ति का सृष्टि के साथ समायोजन करते हुए जब उसे परमेष्ठी की ओर अग्रसर किया जाता है, तभी वह ‘सा विद्या या विमुक्तये’ इस उक्ति को सार्थक करने की योग्यता अर्जित करता है।विद्यार्थी को शिक्षा केवल परीक्षा उत्तीर्ण कर अधिक अंक लाने के लिए नहीं दी जाती, वह तो जीवन की चुनौतियों का डटकर मुकाबला करते हुए कुलदीपक बनाने के लिए समाजसेवी बनाने के लिए देशभक्त निर्माण करने के लिए तथा सम्पूर्ण मानवता के लिए जीवन खपाने हेतु दी जाती है। ऐसा जीवन केवल पुस्तकें पढ़ने से नहीं बनता अपितु क्रिया, अनुभव, विचार, विवेक तथा दायित्व बोध आधारित शिक्षा देने से बनता है। यही भारतीय शिक्षा है, इसी शिक्षा से योग्य एवं निष्ठावान नागरिक निर्माण होते हैं, यह विद्या भारती का अनुभूत मत है। भारतीय शिक्षा से ही हमारा देश पुनः एक बार जग सिरमौर बनेगा।